Tuesday, December 14, 2010

कमनसीबी का सबब....


आसमा था दूर तक तन्हा था मैं
तेरी ग़ज़लों का फक्त उन्वा था मैं!

कमनसीबी का सबब पूछो न यारों
सब खुदा थे शहर मैं इन्सा था मैं!

मूह छुपाता हूं तेरी बेबाकियों पर
सोचता हूं क्या कभी ऐसा था मैं!?

तुम तो मोहसिन थे बुलंदी पा गये
खुद परस्ती मैं कहीं पिन्हा था मैं!

उसने हर ताल्लुक पे बदली शक्ल हैं
झिलमिलाती रेत सा यकसां था मैं!!

भीड़ मैं खो कर ये मालूम हो सका
तीरगी को किस कदर तरसा था मैं!

यूँ तो खुद को जब्त करता ही रहा
तेरी आँखो से मगर.. बरसा था मैं!!

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