Tuesday, December 14, 2010

हिन्दी दिवस.....


मैने उसे देखा हैं
ओर रोज देखता हूँ
मेरे शहर मैं
किंचित सी काया लिए
तार तार होती छाया लिए
नग्न बदन
घूमती रहती हैं
छिपती रहती हैं
उस टिटिहारी की तरह
जो हर समय
बहेलिए के निशाने पर हो
उसकी आँखो मैं
अश्रु सूख चुके हैं शायद
सपने टूट चुके हैं शायद
अपनी पलको पर
एक उम्र का बोझ लिए हूवे
उसे मैने देखा हैं ओर रोज देखता हूँ
जिंदगी की सड़को पर चलते हुए
आज उसे हज़ार साल गुजर गए हैं
लेकिन लगता हैं
वह तब से चल रही हैं
जब उस सड़क की जगह
एक छोटी सी पगडंडी हुआ करती थी
तब वह इतनी जर्जर ना थी
उसकी आँखो मैं सुनहले सपने थे
उसके सिर पर स्वाभिमान का ताज था
लेकिन आज
अपने शहर की सड़के नापते देख
सोचता हूँ
की इस जर्जित काया को
घृणित व वहशी नज़रों से देखने वाला व्यक्ति
क्या मेरे ही देश का हैं
लेकिन एक दिन
कुछ सरकारी नस्ल के लोगो ने
उस काया को कुछ एक बनावटी परिधान पहनाए
कुछ एक आभूषण लाद दिए उस पर
मैं भौचक्का सा देख रहा था
बदलती तस्वीर को
मालूम हुआ की
एक दिनी प्रदर्शनी मैं
उस की नुमाइश की जानी हैं
मेरे मन हुआ की दौड़ कर जाऊ
ओर उतार के रख दू उस बनावटीपन को
ओर जाहिर कर दू उस जर्जरता को
जिसे मैने देखा था
अपने शहर के चौराहे पर
पर अफ़सोस
मेरे पहुचने तक
नुमाइश ख़त्म हो गए थी
ओर वो हाथ मैं रखे कागज पर से कुछ खाती हुई
वापस आ रही थी मेरे शहर की ओर
उसके बदन पर रह गये
कुछ रंग जो शायद
उसके घाव को छुपाने के लिए
उस पर तपे गये थे
कुम्हला से गये थे
उसकी प्रतिमा पर
विदेशियत की कालीमा ओर गहरा सी गयी थी
तुम उसे नही जानते शायद
लेकिन मैने उसे देखा हैं
ओर रोज देखता हूं
मेरे शहर मैं
बिंदी बिंदी शून्य होती हिन्दी को
देखा मैने पहले ही कहा था
तुम उसे नही जानते
क्योंकि तुम सिर्फ़
नुमाइश मैं रखी
प्रदीप्त काया को जानते हो
जर्जरता को नही
क्योकि तुम
एक "प्रोफेशनल इंडियन" हो
सभ्य भारतीय नही
सभ्य भारतीय नही
क्या ये हो नही सकता की
हम उस देवी को
मस्तक से लगाए
ओर एक दिनी नही अपितु
असंख्य हिन्दी दिवस मनाए
असंख्य हिन्दी दिवस मनाए

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