Tuesday, December 14, 2010

हे मनुज कुछ सोच तो तू.........


दोस्तो अपने चारों ओर नज़र करता हूँ तो पाता हूँ की कंकरीटी सभ्यता का विस्तार निगल लेने को आतुर हैं हमे दिन-ब- दिन, विकास की बहुत बड़ी कीमत हैं ये, ओर इसके लिए मैं खुद को ज़िम्मेदार मानता हूँ शायद आप भी मुझसे सहमत हों
एक गीत.......
हे मनुज कुछ सोच तो तू .....क्या धरा को दे रहा !
प्रकृति में विष घोल कर तू .....प्राण वायु ले रहा !!
नग्न से दिखते ये जंगल, माफ़ तो क्योंकर करेंगे !
वो जो उजड़े हैं जड़ों से,......... घौसले कैसे बसेंगे,!!
कर औरो को मझधार में, अपनी ही कश्ती खे रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू, ...क्या धरा को दे रहा .!!
जंगलों को काट कर जो, .......बस्तियाँ तूने बसाई !
वैभव का हर समान था, घरमें मगर खुशियाँ नआई !!
तेरे ही तो पाप हैं पगले, ..........तू जिनको धो रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू,...... क्या धरा को दे रहा !!
इन धधकती चीमनियों के,..... दंश से कैसे बचोगे !
बच भी गये गर मौत से पर, पीड़ीयों विकृत रहोगे !!
दोष किसको देगा जब, ......खुद ही तू काँटे बो रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू, .....क्या धरा को दे रहा.!!
अब ना चेते तो धरा की, .....परतों में खोदे जाओगे !
डायनासोरों की तरह, ......क़िस्सों में पाए जाओगे !!
यम तेरे सर पर खड़ा, ..........तू हैं की ताने सो रहा !
हे मनुज कुछ सोच तो तू, ......क्या धरा को दे रहा !!
वक्त हैं अब भी संभल, मत तोड़ प्रकृति संतुलन को !
जो भी जैसा हैं वही, ........रहने दे इस पर्यावरण को !
वरना फिर भगवान भी, ........तुझको बचाने से रहा !!
हे मनुज कुछ सोच तो तू, ........क्या धरा को दे रहा !
प्रकृति मैं विष घोल कर तू .........प्राण वायु ले रहा !!
हरीश भट्ट

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