Monday, December 13, 2010

कवि........


रोज आप सब की पंक्तियाँ पड़ कर मुझे ये ख़याल आया की इन पंक्तियों के लिए कितना कुछ भोगा होगा सबने इसी अभिव्यक्ति के समर्थन मैं..........


कल्पना की डोर थामे
स्वयं से
दूर भागता हैं
क्षितिज के छोर तक
किरनो का ताप
झेलता हैं
व्यग्र मन
मुक्ति की चाह मैं
समाज का पाप पालता हैं
हाँ
एसे ही जीता हैं कवि,
एसे ही जीता हैं,
जिंदगी के कॅनवस पर
बदरंगो का बोझ लिए
इकलोते धड़ पर
रावण सा क्रोध लिए
पनियाली आँखो से
टिमटिमाते जुगनूओ की मरीचिका
मैं धकियाते,
शब्द, घड़ता हैं कवि
हाँ एसे ही जीता हैं कवि
बासी अख़बार की कतरनो
की तरह
अपनी ही कविता को ओड़े
बहराती कोमों की
नाजायज़ कोख लिए
गुमसुम आँधियाले मैं
चाय की छन्नी सा
रोज छनता हैं कवि
हाँ एसे ही जीता हैं कवि
एसे ही मरता हैं.

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