Monday, December 13, 2010

मेरे देश का भविष्य


२० साल पहले अपने कॉलेज के मंच से पड़ी ये पंक्तियाँ आज भी सामयिक ही लगती हैं इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ

भूखे पेट वर्तमान खाली हाथ हैं भविष्य
ओर बुझते चिरागों मैं ना तेल हैं ना बाती हैं-२
ओर स्वतंत्रता की नाव जाने चली किस गाव
बड़ी तेज इन हवाओ की रवानी कही जाती हैं

सीमाओ की आग मंदिर मस्जिद का विवाद
आतंकवाद की तो जेसे ससुराल हुई जाती हैं-२
मेरे देश का भविष्य ज़रा देखो एक दृश्य
जैसे किसी देवदासी की जवानी ढली जाती हैं

कैसी ईद क्या दीवाली कैसी होली की ठिठोली
मत पूछो इसे किस की नज़र लगी जाती हैं-२
क्या बसंत मधुमस कैसी सरसो क्या पलाश
बस इलेक्सन की ही रुत अब सुहानी कही जाती है

मेरा देश भारतवर्ष कैसे होगा वही हर्ष
जब वेदों की ऋचाए घर घर कही जाती हैं-२
अब द्वेष हैं कॅलेश सब भाइयों मैं शेष
बस रक्त ओर नफ़रत कीही गंगा बही जाती हैं

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