Thursday, December 23, 2010

साफ जाहिर हैं इश्क हैं तुमको

आजमाने की ये सजा क्या हैं
ये नावाज़िस  मेरे खुदा क्या हैं

सर पे इल्जाम भी तो ले लेते
एसे मरने से, फायदा क्या हैं

उसके चेहरे  पे, साफ गोई हैं
कौन जाने ये माजरा क्या हैं

साफ जाहिर हैं इश्क हैं तुमको
बज्म मैं फिर ये मुद्दआ क्या हैं

वक़्त ने भी,, तो बेवफाई की
तू भी कह दे तेरी रज़ा क्या  हैं

मैं भी अंदोह-ए-वफ़ा से, छूटूं
पहले ये  जान लूं  जफ़ा क्या हैं

कैसे कह दूं की, लौट आऊँगा
बद्गुमानों का  वायदा  क्या हैं

2 comments:

  1. मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.

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