Thursday, May 12, 2011

खुद में सिमटा झील सा मैं...


दोस्तों एक नज्म की कुछ पंक्तियाँ आपकी नजर करता हूँ ...

रात भर कोई मुझे.. याद आता आता रह गया
नज़्म थी या थी गजल मैं गुनगुनाता रह गया

कल ढूंढते थे वो मुझे शिद्दत से कूच-ए-यार में
मैं रकीबों की गली मैं बस आता जाता रह गया

बेसबब ही पूछ बैठा मैं भी उससे यारों का पता
जाने क्यों गुस्सा हुआवो तिलमिलाता रह गया

आज फिर बाजार मैं ...,.लुटती रही वो आबरू
और मैं कमजर्फ खुदसे ,छिपछिपाता रह गया

जाने कितनी बार उससे., हालेदिल पूछा मगर
दर्द आँखों मैं छुपा कर..... मुस्कुराता रह गया

वो तो दरिया था बहा भी तो,, समन्दर हो गया
खुदमें सिमटा झीलसा मैं झिलमिलाता रह गया

रौनक-ए-महफ़िल थी तेरी रौशनी हर सिम्त थी
बस मेरी ही गली में अँधेरा ,सरसराता रह गया

6 comments:

  1. जाने कितनी बार उससे हाले दिल पूछा मगर
    दर्द आँखों में छुपा कर मुस्कुराता रह गया ... वाह , बहुत बढ़िया

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  2. जाने कितनी बार उससे., हालेदिल पूछा मगर
    दर्द आँखों मैं छुपा कर..... मुस्कुराता रह गया


    वाह ..बहुत खूबसूरत गज़ल

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  3. इस पर फिर से आपकी इस नज़म ने साबित किया कि आप प्यार को कितनी गहराई से सोचते है

    बहुत खूब...बहुत ही उम्दा


    aapse umeed hai ki aap bhi mere blog pe aayege

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  4. दिल की गहराई से निकली रचना दिल को छू गई | बहुत अच्छा लगा पढना |
    जाने कितनी बार उससे हालेदिल पूछा मगर
    दर्द आँखों में छुपा कर मुस्कुराता रह गया
    बहुत खुबसूरत पंक्तियाँ
    वो तो दरिया था बहा भी तो समंदर हो गया
    खुद में सिमटा झील सा मैं झिलमिलाता रह गया
    निशब्द हूँ ..............

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  5. bhut hi sunder shabdo se rachi rachna... dil ko chu gayi..

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  6. निशब्द कर दिया आपने.......लाजवाब

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