Friday, May 27, 2011

वार्डरोब

 
छोड़ आया हूँ
उम्र के कुछ साल
उस चूने-सुर्खी के मकान मैं
लकड़ी  के खूटे पे
टंगे रह गए वो दिन
पिता जी का गमछा,
सूत का थैला
काली तिल्ली वाली
छतरी  के साथ
अलसाये आंगन मैं
माँ के गठियाए नुस्खे
सिल बट्टे  और
आचार के मर्तबानों के साथ
धूप सेकती
साबूदाने की कचरी  के साथ
हमेशा ही तो
कहती थी ..माँ
इधर मत आना अभी लीपा हैं
छूत लग जाएगी  रसोई बनानी हैं
क्या पता था उसे
की अब
कभी नहीं आऊंगा मैं
उसकी रसोई से
पुए और बड़ों
की  छ्स्स्स .....
अब नहीं सुनाई देती 
परके साल से
लाल अमरूदों  मैं
वो स्वाद भी नहीं रह गया
पिछवाड़े का लंगड़े का पेड़
अब भरभराने  को हैं
पड़ोसियों के पत्थरों से लहूलुहान
छत पे  टीवी का एंटीना
मौन खड़ा हैं
बातचीत बंद हैं उसकी गौरैय्यों से
सोचता हूँ उतार लाऊ
उस खूटे से
वो दिन
पिताजी का गमछा,सूत का थैला
माँ की गठीयन
पर मेरे वार्डरोब मैं
कोई हेंगर
खाली ही नहीं अब

3 comments:

  1. इस तरह छूट जाते हैं जाने कई साल ... कुछ इस कमरे में कुछ पेड़ पर कुछ पलंग के नीचे कुछ धूप में...

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  2. बहुत ही मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...बीते हुए दिन सिर्फ़ यादें ही बनकर रह जाते हैं..बहुत सुन्दर

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  3. हर बार कि तरह इस रचना ने भी एक चित्र सा खिंच दिया आँखों के सामने | छोड़ आया हूँ उम्र के कुछ साल ....................... पढ़ कर ये नहीं लगा कि किसी और कि बात पढ़ रही हूँ बल्कि ऐसा महसूस हुआ कि मैं खुद हीं छोड़ आई हूँ कहीं कुछ और सारी चीजें जो भी छुटी हैं सब जानी पहचानी हीं तो हैं 'लकड़ी के खूंटे' , 'गमछा', 'सूत का थैला', सिल बट्टे, अचार, साबूदाने कि कचरी, वो लिपा हुआ आँगन (और चूल्हे भी लिपे हुए होते थे सर) हर चीज़ तो जाना पहचाना हीं तो है कुछ भी अंजना नहीं
    सोचता हूँ उतार लाऊ
    उस खूटे से
    वो दिन
    पिताजी का गमछा,सूत का थैला
    माँ की गठीयन
    पर मेरे वार्डरोब मैं
    कोई हेंगर
    खाली ही नहीं अब
    Its really very very touchy

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