Tuesday, February 28, 2012

मेरे ही फैसलों ने

थी हसरत-ए-परवाज़ मगर हौसला न था !
या यूं भी था की सर पे मेरे आस्मा  न था !!


सारे शहर मैं सबने जिसे आम कर दिया !

महफ़िल मैं तेरी यार मेरा तज़करा न था !!

बेगाने इस  शहर  की, तनहाइयाँ न पूछ !

अपना कहें किसे कोई अपने सिवा न था !!

मैं  भी रह गया उन्ही काँटों मैं उलझ कर !

इसमें खता क्या मेरी अगर रास्ता न था !!

चेहरे पे जम गई थी, ख्यालों की सलवटें !

ऐसे तो हमसफ़र था मगर बोलता न था !!

मेरे ही फैसलों ने मुझे बरबाद कर दिया !

यूं  शक्ल पर उसकी कुछ भी खुदा न था  !!

1 comment:

  1. हौसलों हो तो क्या नही हो सकता है..... बेहतरीन अभिवयक्ति....

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