Monday, June 27, 2016

.....रिश्ते .....


मेरा कमरा
कुछ अस्त व्यस्त हैं ,
मेरी ही तरह त्रस्त हैं
दस्तक मत देना तुम 
दरवाजे पर
व्यर्थ हैं,
खुल पाने में
असमर्थ हैं !
दरवाजा ओर मैँ भी !
बदरंग हो चुकी दीवारों पर
मौन का कुहासा,
अधखुली खिडकियों पर
पर्दों सी लटकी हताशा
कुर्सियों पर,
औधे मुह गिरे हुए कपड़े
मुह बाये पड़ा तौलिया
दुनिया भर के लफड़े !
टेबल पर
हाथ से छूटी घड़ी
परेशानी, एक छोटी एक बड़ी
चार्जर में जकड़ा मोबाईल
इंच इंच, कम होती स्माइल
चाबियों का, अनमना सा गुच्छा
अश्कों के मोती
इक झूठा, इक सुच्चा
धूल से अटा लेपटॉप
कागजों से
भरा पूरा पर्स
जाने कितनी, पीढ़ियों का कर्स !
छितराया हुआ सा, बिस्तर
रात भर का जगा, तकिया
भीगा हुआ अस्तर
दो बेजोड़ी जूते
मोज़ो से अटे हुए
साँस रोके हुआ एक अदद पंखा
बिना जिल्त डायरी के
श्याह पड़ते कोरे सफ़्हे
भूख सिर्फ भूख ..बाज दफे !
सब कुछ तो हैं
मुझ मैं शरीक, मुझ सा ही
पर सोचता हूँ
की ऐसे ही रहने दूं सब
बेतरतीब, अनसुलझा सा
असंस्कारित, उलझा हुआ
वरना
पहचानेगा कौन फिर मुझे
ये कमरा
पराया सा नहीं हो जायेगा ??
रिश्ते भी आजकल
ऐसे ही अस्त व्यस्त
और उलझे हैं !!
कुछ सवाल हल
कुछ अनसुलझे हैं
रिसने लगी हैं अब
तेज भभक
कमरा तो फिर भी बदल लूं
पर रिश्ते !!
ठीक से न बो पाए
तो, कैसे ढोए जाते होंगे !?!?
----हरीश----

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