Saturday, April 29, 2017

कविता का होना

मैं 
देखता हूँ 
जब भी तुम्हें 
तुम मैं उतर जाता हूँ 
और तुम मुझमें 


वही वो क्षण होता हैं 
जब 
रचनात्मक भाव 
रोप देते  हो तुम
मुझमें
 अनजाने ही

तुम्हारी
मुस्कुरहाट
सींच देती हैं 
 सस्नेह ही
मन रुपी मृदा ..
नम हो जाती हैं

शब्दों का  अंकुरण
स्फुटित होता हैं
ह्रदय में

तुम्हारी सांसों की
प्राणवायू ले
कांतिमय चक्षुओं की 
सौर्य उर्जा ले
भावों के आलम्बन से
ओत प्रोत

तुम्हारी
खनकती आवाज से पोषण ले
उग आती हैं
गीतों की अमर बेल
तुम्हारा प्यार
खिल उठता हैं
ज़िस पर
अनायास ही
प्रफुल्लित पलाश की तरह

और  वो  कहते हैं
ये रचना
मैंने लिखी हैं
अब तुम्ही बताओ
इसमें
मेरा क्या कसूर भला 

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