Thursday, July 6, 2017

कभी रुखसती पे ये सोचना

कभी रुख़सती पे ये सोचना,...

ये जो दर्द सीने में भर गया,
यूंही आके दिल में पसर गया !
इसे जाने किसकी हैं जुस्तजू,
यहीं आके जो ये ठहर गया !!

कभी तुझसे बाबस्ता था मैं......
तेरी आदतों में शुमार था !
मुझे देखे बिन गुजरा न जो,
वही वक्त आखिर गुजर गया !!

मैं तो तुझसे आशना था मगर,
तुझे और ही की तलाश थी !
था नवाज़िशों का भरम तुझे,
न वो रब्त था न असर गया !!

कभी तो मिलो किसी ग़ज़ल में
किसी नज्म में क़त'आत में !
हुए तुम शहर से यूं गुमशुदा
जैसे नगमा लब से बिखर गया !!

ना मैं हिज्र में ना विसाल में....
ना किसी के बेज़ा ख्याल में !
कभी रुख़सती पे ये सोचना,
यहीं था अभी जो किधर गया !!

कभी रुख़सती पे ये सोचना,....

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