Sunday, December 10, 2017

मिसरा -ए-तरह- "ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ"



दाग दामन में लगे हैं की मिटा भी न सकूँ !
और उसपे सितम ये की दिखा भी न सकूँ !!

ऐसे रूठा हैं वो मुझसे की, मना भी न सकूँ !
ढूँढने उसको चला हूँ, जिसे पा भी न सकूँ !!

जब्त ने इश्क में बहरहाल,, मुझे रोका हैं !
हाल-ए-दिल अपना मैं, सुना भी न सकूं !!

कुछ तो तूने भी दिल से, पुकारा नहीं होगा !
वर्ना ऐसा भी नहीं था की में आ भी न सकूं !!

मैंने पहलू में उसे सीने से, लगा रक्खा था !
वो भी सोया था ऐसे की, जगा भी न सकूँ !!

तेरे ही इश्क के इलज़ाम,, बहुत थे वरना !
वर्ना ऐसा भी नहीं सर को उठा भी न सकूँ !!

हरीश भट्ट

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